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Wednesday 26 August 2015

बुखार  


मौसम के बदलाव के चलते अक्सर बुखार जैसी समस्या का हो जाना आम बात है। बुखार नियंत्रण के लिए आदिवासी अंचलों में कई नुस्खों को हर्बल जानकारों द्वारा प्रचलन में लाया जाता रहा है। कई वनस्पतियों और उनके अंगों को बुखार नियंत्रण के लिए अत्यंत कारगर माना गया है। हर्बल जानकार जिन्हें मध्य भारत में भुमका और पश्चिम भारत में भगत कहा जाता है, अनेक वनस्पतियों का उपयोग कर बुखार में आराम दिलाने का दावा करते हैं। चलिए आज जानते हैं इन्ही आदिवासियों के द्वारा अपनाए जाने वाले 10 चुनिंदा हर्बल नुस्खों को जिनका इस्तेमालकर बुखार पर काबू पाया जा सकता है। इनमें से अधिकांश हर्बल नुस्खों की पैरवी आधुनिक विज्ञान भी करता है।

बुखार के नियंत्रण के संदर्भ में आदिवासियों के परंपरागत हर्बल ज्ञान का जिक्र कर रहें हैं डॉ दीपक आचार्य (डायरेक्टर-अभुमका हर्बल प्रा. लि. अहमदाबाद)। डॉ. आचार्य पिछले 15 सालों से अधिक समय से भारत के सुदूर आदिवासी अंचलों जैसे पातालकोट (मध्यप्रदेश), डाँग (गुजरात) और अरावली (राजस्थान) से आदिवासियों के पारंपरिक ज्ञान को एकत्रित कर उन्हें आधुनिक विज्ञान की मदद से प्रमाणित करने का कार्य कर रहें हैं।

डाँग- गुजरात के आदिवासी हंसपदी के संपूर्ण अंगों यानि तना, पत्ती, जड़, फल और फूल लेकर सुखा लेते है और फ़िर एक साथ चूर्ण तैयार करते है, इस चूर्ण का चुटकी भर भाग शहद के साथ सुबह और शाम लेते है जिससे बुखार में आराम मिलता है।

पातालकोट के आदिवासी बुखार और कमजोरी से राहत दिलाने के लिए कुटकी के दाने, हर्रा, आँवला और अमलतास के फलों की समान मात्रा लेकर कुचलते है और इसे पानी में उबालते है, इसमें लगभग ५ मिली शहद भी डाल दिया जाता है और ठंडा होने पर इसे रोगी को दिया जाता है। दिन में कम से कम दो बार इस मिश्रण को दिए जाने पर बुखार नियंत्रित हो जाता है।

इन्द्रजव की छाल और गिलोय का तना समान मात्रा में लेकर काढ़ा बनाया जाए और लम्बे चले आ रहे बुखार के रोगी को दिया जाए तो आराम मिल जाता है। पातालकोट के आदिवासी रात को इंद्रजव पेड़ की छाल को पानी में डूबोकर रख देते है और सुबह इस पानी को पी लेते है, इनके अनुसार इससे पुराना बुखार ठीक हो जाता है।

पातालकोट में आदिवासी करौंदा की जड़ों को पानी के साथ कुचलकर बुखार होने पर शरीर पर लेपित करते है और गर्मियों में लू लगने और बुखार आने होने पर इसके फलों का जूस तैयार कर पिलाया जाता है, तुरंत आराम मिलता है।

शरीर में बुखार होने की वजह से जलन होने पर पलाश के पत्तों का रस लगाने से जलन का असर कम हो जाता है।

पुर्ननवा की जड़ो को दूध में उबालकर पिलाने से बुखार में तुरंत आराम मिलता है। बुखार के दौरान अल्पमूत्रता और मूत्र में जलन की शिकायत से छुटकारा पाने के लिए भी यही मिश्रण कारगर होता है।

डाँग- गुजरात के आदिवासी फराशबीन की फल्लियों को पीसकर या कद्दूकस पर घिसकर मोटे कपड़े से इसका रस छान लेते है और इस रस को कमजोर शरीर और बुखार से ग्रस्त रोगियों के देते है। उनके अनुसार इसमें पोषक तत्व की भरपूर मात्रा होती है और ये कमजोरी को दूर भगाने में कारगर फ़ार्मुला है।

सप्तपर्णी की छाल का काढ़ा पिलाने से बदन दर्द और बुखार में आराम मिलता है। डाँग- गुजरात के आदिवासियों के अनुसार जुकाम और बुखार होने पर सप्तपर्णी की छाल, गिलोय का तना और नीम की आंतरिक छाल की समान मात्रा को कुचलकर काढ़ा बनाया जाए और रोगी को दिया जाए तो अतिशीघ्र आराम मिलता है। आधुनिक विज्ञान भी इसकी छाल से प्राप्त डीटेइन और डीटेमिन जैसे रसायनों को क्विनाईन से बेहतर मानता है।

सूरजमुखी की पत्तियों का रस निकाल कर मलेरिया आदि में बुखार आने पर शरीर पर लेपित किया जाता है, पातालकोट के आदिवासियों का मानना है कि यह रस शरीर के तापमान को नियंत्रित करने में मदद करता है।

डाँग- गुजरात के आदिवासी सोनापाठा की लकड़ी का छोटा सा प्याला बनाते है और रात को इसमें पानी रख लेते है, इस पानी को अगली सुबह उस रोगी को देते है जो लगातार बुखार से ग्रस्त है।

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